भीष्म पितामह कौन थे जानिए कैसे हुआ उनका वध
भीष्म पितामह (bhishm pitamah) कौन थे जानिए कैसे हुआ उनका वध – यह बात उस समय की हैं जब देवता धरती पर विचरण किया करते थे. किसी खास मंत्र के आह्वान पर भगवान् प्रकट होते, और उनको वर देते. वर(वरदान) के लिए तपस्या करनी पड़ती थी. पुराणों में सैकड़ो कथाओं का भण्डार भरा हैं, जिसमे वर्णित हैं की जब जब किसी भक्त ने भगवान् की तपस्या की हैं भगवान ने उनको वर दिया. यह कथा भीष्म पितामह की हैं, जिसमे भीष्म पितामह का जन्म, उनकी प्रतिज्ञा और महत्वपूर्ण पौराणिक कथाओं के बारे में हैं. भीष्म पितामह के जन्म से जुड़ी कथा अत्यंत रोचक हैं, और भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा असराहनीय हैं, जो किसी और से असंभव हैं.
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भीष्म पितामह कौन थे ? और जन्म कैसे हुआ
ब्रम्चार्य भीष्म पितामह का असली नाम देवव्रत था. भीष्म पितामह राजा शांतनु के पुत्र थे. राजा शांतनु प्रतीप के पुत्र थे. एक बार की बात हैं राजा प्रतीप पुत्र प्राप्ति के लिए गंगा के किनारे बैठ कर तपस्या कर रहे थे. तब माँ गंगा प्रसन्न होकर राजा प्रतीप की दाहिनी जंघा पर आकर बैठ गयी और राजा प्रतीप के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा. तब राजा प्रतीप ने कहा – गंगा तुम मेरी दाहिनी जंघा पर आकर बैठी हो और दाहिनी जंघा पुत्र का प्रतीक होती हैं. मैं तुमको पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कर सकता हूँ. इसके बाद गंगा वहां से चली गयी.
समय रहते राजा प्रतीप को एक पुत्र हुआ, जिसका नाम शांतनु रखा गया. राजकुमार शांतनु का विवाह गंगा के साथ हुआ और दोनों से आठ संतान हुई जिसमे से सात संतान को गंगा ने अपने अन्दर बहा दिया, लेकिन आठवे पुत्र को राजा शांतनु के कहने पर उसको सोंप दिया, और गंगा वहां से चली गयी. विवाह के समय गंगा ने शांतनु से वचन माँगा की आप कभी मेरे किसी काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगे. जब राजा शांतनु ने सात पुत्रो की भांति आंठवे पुत्र को गंगा में बहाते हुए देखा नहीं गया तो गंगा को टोक दिया.
तब गंगा माँ बच्चे को शांतनु को सोप कर वहां से चली गयी. राजा शांतनु ने अपने पुत्र का नाम – देवव्रत रखा. आगे चलकर देवव्रत ही भीष्म पितामह बने. किशोर देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया. यह कथा भीष्म पितामह के जन्म के बारे में थी. भीष्म पितामह के पुर्व जन्म की कथा, जिसमे पितामह को एक शाप लगा था. चलिए क्या हैं यह कथा, जानते हैं.
भीष्म पितामह के पुर्व जन्म की कथा
धौ नाम का एक वशु था. एक बार धौ ने ऋषि वशिष्ट जी की कामधेनु का अपहरण कर लिया. जब ऋषि वशिष्ट जी को पता चला तो, धौ के साथ साथ सात और वशुओ को मनुष्य बनने का शाप दे दिया. तब सात वशुओं ने गुरु वशिष्ट से प्रार्थना की हे गुरुवर! हमने आपकी कामधेनु का अपहरण नहीं किया. ये दुस्साहस धौ का हैं. अत: आप हमे शाप से मुक्ति दे दीजिये. तब गुरु वशिष्ट जी नें कहा की शाप को निरस्त नहीं किया जा सकता लेकिन शाप का प्रभाव कम किया जा सकता हैं. तुम माँ गंगा के पास जाओ और उनसे विनती करो,
तुम्हारे दुःख का निवारण हो जायेगा. लेकिन धौ को पूरा जीवन मनुष्य बनकर रहना पड़ेगा. सभी वशु गंगा के पास गये और विनती की हे माँ! हमें मृत्युलोक में जन्म लेने का शाप मिला हैं. कृपया करके आप हमे अपनी कोख से जन्म देकर अपने में बहा दीजिये. हम इस शाप से मुक्त होना चाहते हैं. इसलिए आगे चलकर गंगा माँ ने जिस सात पुत्रो को बहाया था, सातों वशु थे. आठवा – धौ था, जो भीष्म पितामह के पूर्व जन्म के किरदार थे.
bhishm pitamah की प्रतिज्ञा
बात उस समय की हैं जब देवव्रत किशोर अवस्था को पार कर चुके थे. एक दिन राजा शांतनु यमुना के किनारे बैठे थे, तभी उनकी नज़र एक रूपवती कन्या पर पड़ी, उसका रूप, यौवन देखकर राजा शांतनु उससे मन ही मन प्रेम करने लगे. शांतनु ने उसका पीछा किया और उसके घर पर चले गए. राजा शांतनु ने पाया की विषाद जाति की कन्या, जिसका नाम सत्यवती हैं. राजा ने सत्यवती से विवाह करने का प्रस्ताव रख दिया. सत्यवती के पिता मान गये, लेकिन एक शर्त के साथ. धीवर ने शर्त रखी कि सत्यवती का पुत्र ही राजकुमार बनेगा. राजा को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ, और वापस लौट आये.
इसके बाद राजा शांतनु सत्यवती के वियोग में घुटने लगे और दिन-ब-दिन शरीर से दुर्बल हो रहे थे. देवव्रत को पिता की स्थति समझ नहीं आयी, मंत्रियों से पुछा, तो देवव्रत तुरंत धीवर के पास गये और विवाह का प्रस्ताव रख दिया. और वहां पर एक प्रतिज्ञा ली – मैं देवव्रत प्रतिज्ञा लेता हूँ, हस्तिनापुर का युवराज सत्यवती का पुत्र ही बनेगा, मेरी कोई संतान इसके आड़े नहीं आएगी, इसके लिए मैं आजीवन ब्रम्चार्य रहूँगा. इस प्रतिज्ञा से पिता शांतनु ने देवव्रत को पितृ-भक्ति से प्रसन्न होकर इच्छा मृत्यु का वरदान दिया. देवव्रत की इसी प्रतिज्ञा को “भीष्म प्रतिज्ञा” कहते हैं. इसी कारण से देवव्रत का नाम भीष्म पितामह पड़ा.
भीष्म पितामाह अर्जुन युद्ध – भीष्म पितामह का वध
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की सेना में प्रधान सेनापति थे. नौ दिनों तक भीष्म पितामह कौरवो के साथ पांडवो के खिलाफ लड़ते रहे. नौवे दिन भीष्म पितामह ने पांडव सेना का काफी संहार किया था. नौवे दिन ही अर्जुन और भीष्म पितामह के बीच ने घोर युद्ध हुआ, जिसमे पितामह ने अर्जुन के रथ को झर्झर कर दिया. अर्जुन के रथ की दुर्दशा को देखकर भगवान् श्री कृष्ण ने शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तोड़ दी, और रथ का पहिया लेकर भीष्म पितामह पर टूट पड़े. अपनी सेना की दुर्दशा देखकर पांचो पांडवो ने भीष्म पितामह के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए, और
भीष्म पितामह से पूछा की – आपकी मृत्यु(वध) कैसे हो सकती हैं? भीष्म पितामह कुछ देर सोचने के बाद अपनी मृत्यु का राज पांडवो को बता देते हैं. दंसवे दिन एक बार फिर भीष्म पितामह ने पांड्वो की सेना को खदेड़ कर कर रख दिया. तब पांडवो ने शिखंडी को पितामह के सामने लाकर खड़ा कर दिया. शिखंडी एक नपुशंक था, और भीष्म पितामह नपुशंक पर कोई वार नहीं करते थे. तब पितामह ने अपने हथियार नीचे कर दिए. अर्जुन ने एक के बाद एक अपनी स्फुर्ति से भीष्म पितामह को बाणों की शय्या पर लेटा दिया. माघ महीने के शुक्ल पक्ष में भीष्म पितामह ने अपने प्राणों को त्याग दिए.
भीष्म पितामह के कुछ विशेष रोचक तथ्य
भीष्म पितामह कोई इन्सान नहीं, बल्कि एक देव-वशु थे. पितामह के दोनों भाई, जो की शांतनु और सत्यवती से पैदा हुए, उनकी मृत्यु हो गई थी. अर्थात शांतनु का वंश खत्म हो गया था. तब भी भीष्म पितामह ने विवाह नहीं किया. उसके बाद पितामह ने अपने भाइयो की विधवा-ओ का नियोग प्रथा से संतान करवाई, जिसका नाम पांडु और धृतरास्ट्र रखे गए. मृत्यु के वक्त पितामह की उम्र लगभग 150 वर्ष थी. महर्षि वेदव्यास ने भीष्म पितामह को मुख्य राजनैतिक केंद्र मानते हुए महाभारत लिखी थी. मरते वक्त भीष्म पितामह ने दुर्योधन से युद्ध को रोककर संधि कर, वंश की रक्षा करने को कहा.
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