तुलसीदास जी का विवाह और प्रेम कहानी
तुलसीदास जी का विवाह की एक काफी प्रचलित प्रेम कथा हैं. तुलसीदास जी ने रत्नाव्ली नामक रचना की जिसमे विस्तार से एक प्रेम कहानी का वर्णन किया हैं. रत्नावली एक ड्रामा(नाटक) हैं. अच्छा, तुलसीदासजी के जीवन परिचय में हमने आपको बता या था की कई तरह ने तुलसी दास जी ने रामचरितमानस की रचना की और कैसे साक्षात् भगवन श्री राम के दर्शन किये. अगर आपने अभी तक तुलसी दास जी का जीवन परिचय(tulsidas ka jivan parichay) नही पढ़ा हैं तो, निचे लिंक दी गयी हैं
इस कथा में हम तुलसी दास जी के विवह और प्रेम कथा के बारे में पढेंगे. तुलसीदास जी के जन्म के वक्त ही उनकी माँ चल बसी थी, कुछ समय उनके पिता(आत्मारामजी दुबे) भी चल बसे थे. तुलसीदासजी का पालन पोषण उनकी माँ(हुलसी देवीजी) की दासी के देख रेख में हुआ. कुछ समय बाद दासी माँ भी चल बसी. फिर तुलसी दासजी को मनहूस कहकर गाँव से निकाल दिया गया.
अब तुलसीदास जी इधर उषर भटकने लगे. फिर तुलसी दास जी को उनके गुरु मिल गए. तुलसीदास जी के गुरु का नाम – नरहरि दास जी था. अब हीरे को जौहरी मिल चुके थे. श्री नरहरिदास जी ने तुलसीदास जी को अच्छे से पढ़ा के शिक्षा से परिपूरन किया. उसके बाद शुभ मुहूर्त देखखर भारद्वाज गोत्र के दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से तुलसीदास जी का विवाह संपन्न करा दिया. यहाँ से तुलसी दास जी के जीवन में नया मोड़ आता हैं.
अब तक तुलसीदास जी ने प्रेम को अनुभव नहीं किया था. जैसे ही तुलसी दास जी को रत्ना से प्रेम मिला तुलसीदास जी तो मानो रत्ना में ही खो गए. तुलसीदास जी को किसी से कोई लेना देना नहीं. तुलसीदास जी रत्ना पर मोहित हो चुके थे, अब तो तुलसीदासजी एक क्षण भी रत्ना के बिना नहीं रह सकते.
रत्ना और तुलसी दास जी की सादी के सात दिन हुए और साले साहब, अपनी बहन को लेने के आये. रत्ना अपने भाइयो के साथ जाने लगी. तुलसीदासजी ने कहा रत्ना कहाँ चली…
स्वामी, मैं(रत्ना) दो दिन के लिए मायके जा रही हूँ. दो दिन आपको अकेले ही रहना पड़ेगा. तुलसी दास जी गंभीर हो गए. दो दिन! दो दिन मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगा.
अब रत्ना अपने मायके चले गयी. पीछे तुलसीदास जी को अकेले कुछ नहीं सुहाता. अब तुलसीदास जी भी अपनी पत्नी से मिलने चल दिए. पानी बरस रहा था, अँधेरा था. पर तुलसी दास जी तो अपने प्रेम में मग्न थे. जिधर देखो उधर रत्ना, रत्ना. तुलसीदासजी को रस्ते में नदी पार करनी थी, अब तुलसीदास जी प्रेम में इतने अंधे हो चुके थे कि एक मुर्दा को नाव समझ कर उसके ऊपर बैठ गए और नदी पार की. पैर कीचड़ में धंसते, जैसे-तैसे तुलसीदासजी ससुराल पहुंचे. रत्ना का कमरा ऊपर था. कमरे के बाहर एक पेड़ था. और पेड़ पर एक सांप लटक रहा था. तुलसी दास जी उस सांप को रस्सी समझ ऊपर चढ़ गए.
रत्ना और तुलसी दास जी का मिलन हुआ. रत्ना ने कहा स्वामी आप यहाँ. और आप यहाँ तक आये कैसे? अरे! तुमने ही तो बाहर रस्सी डाल रखी थी. उसी से चढ़कर आये. रत्ना ने बाहर झांककर देखा तो बाहर एक सांप लटक रहा तजा. अब रत्ना ने तुलसीदास जी से कुछ ऐसा कह दिया कि तुलसीदास जी ने वहीँ से अपने कदम पीछे हटा लिए और फिर मुड़कर कभी नही देखा.
रत्ना, ने कहा – स्वामी अगर आपने इतना प्रेम भगवान से किया होता तो अब तक वो आपको कब के मिल चुके होते.
इसके बाद कभी तुलसीदास जी ने मुड़कर वापस पीछे नहीं देखा.
यहीं पर तुलसीदास जी और रत्ना की प्रेम कहानी समाप्त होती हैं. इसके बाद तुलसीदास जी भगवान् श्री राम की भक्ति में लग जाते हैं, फिर रामचरितमानस की रचना करते हैं. इसका विस्तार से वर्णन आप हमारी इस पोस्ट से पढ़ सकते हैं.
तुलसीदास जी का विवाह कथा से हमने क्या सीखा – संसार में प्रेम से रहना चाहिए. मोह को हावी न होने दे. सच्चा प्रेम केवल भगवान से ही करना चाहिए.
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