भारत का सबसे पुराना वेद – वेदों को हिंदू संस्कृति की रीड माना गया है. यह हिंदू धर्म के प्राचीन एवं प्रमुख ग्रंथ है. वेद का सामान्य अर्थ होता है – ज्ञान प्रकाश, जो मनुष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर देता है. वेदों में पौराणिक ज्ञान-विज्ञान का भंडार मिलता है.
वेद भगवान द्वारा ऋषि-मुनियों को सुनाए गए ज्ञान के आधार पर बने हैं. इसलिए इन्हें श्रुति भी कहा जाता है. वेदों को इस दुनिया का सबसे प्राचीन रचित ग्रंथ माना गया है. इनके आधार पर ही दुनिया के अन्य ग्रंथो की उत्पत्ति हुई है. जिन्होंने वेद के ज्ञान को अपने-अपने तरीकों से फैलाया. इनमें मनुष्य की हर समस्या का समाधान मिलता है.
भारत का सबसे पुराना वेद कौन सा है?
भारत का सबसे पुराना वेद ऋग्वेद हैं. मान्यताओं के अनुसार प्रारंभ में एक ही वेद था. लेकिन बाद में इसे सुविधानुसार विषयों में बांटकर चार भागों में विभाजित कर दिया. और ऋग्-वेद, यजु-र्वेद, साम-वेद और अर्थव-वेद के नाम से जाने जाते हैं. प्रथम तीन वेदों को क्रमशः अग्नि, वायु और सूर्य से जोड़ा गया है.
जबकि दूसरी मान्यता है कि ब्रह्मा जी के चार मुख से चार वेद की उत्पत्ति हुई है. ऋग्वेद इसमें स्थिति और ज्ञान के बारे में बताया गया है. यह सबसे प्राचीन वेद(sabse purana ved) है.
ऋग्वेद में दस अध्याय, 1028 श्लोक, 11000 मंत्र लिखे गए हैं. इसके 5 शाखाएं है. इसमें भौतिक स्थिति और देवताओं की स्थिति के बारे में बताया गया है. इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सोर चिकित्सा, हवन चिकित्सा का ज्ञान मिलता है. साथ ही इसके दसवें मंडल में औषधियों का जिक्र किया गया है.
ऋग्वेद में कुल 125 औषधियां बताई गई है, जिसमें सोम का विशेष महत्व है. औषधि सोम, ऋग्वेद कालीन पेय पदार्थ हैं. इस तरह ऋग्वेद ग्रन्थ भारत का सबसे पुराना वेद है.
ऋग्वेद के रचनाकार का नाम क्या है ?
ऋग्वेद के रचनाकार महर्षी वेदव्यास जी थे. ऋग्वेद की रचना किसी एक ने नहीं की थी बल्कि समय समय पर अनेक रचनाकारों द्वारा यह रचा गया हैं. जिसमे विश्वामित्र , वशिस्ठ भारद्वाज, अत्रि, वामदेव ऋषि, और गृत्सयद ऋषि शामिल हैं.
ऋग्वेद के अन्दर क्या जानने को मिलता हैं
ऋग्वेद सर्वोपरि हैं और शेष तीनो वेदों की रचना भी इसी वेद से हुई हैं. ऋग्वेद में कुल दस अध्याय हैं, और 10580 मंत्रो का संग्रह हैं. ऋग्वेद के सभी अध्याय को मंडल कहा जाता हैं.
दसों मंडलों में दुसरे से सातवा श्रेष्ठ हैं. इस वेद में स्वर्ग के देवताओं की स्तुति की गयी हैं जिसमे अग्नि, वायु, गरुड़, इन्द्र, मारुत आदि देव शामिल हैं.
ऋग्वेद की महिमा
“यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावऋग्वेदमहिमा लोकेषु प्रचरिष्यति।।”
इस श्लोक का अर्थ यह हैं कि – जब तक इस धरती पर पर्वत और नदियाँ मौजूद रहेंगे. तब तक इस महा वेद की महिमा इस संसार में फैलती रहेगी. ऋग्वेद, यजु, साम, अर्थव सभी वेदों का सार हमको हमारे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, ईश्वर, पाप पूण्य, प्रकृति, प्रलय सभी का जिवंत बोध कराती हैं.
वेद कोई आम ग्रन्थ नहीं बल्कि ज्ञान का सागर हैं.
यदि कोई आम मनुष्य इन ग्रंथो को समुचित तरीके से अध्ययन कर लेता हैं, तो वह मनुष्य ब्रह्मज्ञानी बनकर निकलेगा.
ऋग्वेद की एक कथा
ऋग्वेद में सैकड़ो कथाओं जो हमको जीवन के विभिन्न विषयों का अनुभव कराती हैं. आपने महर्षि दधिची का नाम तो सुना ही होगा. महर्षि दधिची ने अपने जीवन का दान कर हमारे सामने एक परोपकार करने आदर्श प्रस्तुत किया हैं. महर्षि दधिची की कथा –
स्वर्ग के इन्द्र देव कभी कभी एसी लीलाएं करते हैं, वो वाकई असराह्नीय होती हैं. इंद्रा देव को कभी कभी अपने ऊपर स्वर्ग के सबसे बड़ा देव होने का घमंड हो जाता हैं.
एक बार इन्द्र देव के मन इस बात का घमंड हो गया की वह तो सबसे बड़े स्वर्ग के देव है, त्रिलोकीय है. सभी देव, समस्त ब्रह्माण्ड उनकी पूजा करते हैं. बड़े बड़े ऋषि उनको अपनी आहुति प्रदान करते हैं. एक बार एक ब्राह्मण जिनका नाम बृहस्पति था, इन्द्र के दरबार में आये. इन्द्र उनको आम ब्राहमण मानकर उनका कोई आदर सत्कार नहीं किया, यहाँ तक कि खड़े तक नहीं हुयें. ब्राह्मण बृहस्पति बहुत बड़े ज्ञानी थे. बृहस्पति ने देव इन्द्र के मन की बात को जान लिया और बिना कुछ बोले वहां से वापस चल दिए.
जब दुसरे देवताओं को इस बात का पता चला तो उन्होंने इन्द्र देव को समझाया तो इन्द्र को अपनी गलती का अहसास हुआ और दौड़े दौड़े बृहस्पति के पास पहुंचे. लेकिन इंद्रा के अपमान के पश्चात् महाराज बृहस्पति कही दूर चले गए थे. भगवान् इन्द्र ने ब्राह्मण बृहस्पति को खूब ढूंढा लेकिन उनको कहीं पर भी कुछ हाथ नहीं लगा सिवाय निराशा के.
महर्षि बृहस्पति के बिना कई सारे यज्ञ रुक गए और देवताओं की शक्ति धीरे धीरे क्षीण पड़ती गयी. जल्दी इस बात का पता असुरो को चल गया की महर्षि ने देवताओं के लिए कोई यज्ञ नहीं किया जिनसे उनकी शक्ति क्षीण पड़ गई हैं. असुरो ने देवताओ के ऊपर चढाई करने की योजना बनाने लगे.
फिर वो दिन आ गया जिस दिन असुरों ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से अनुमति लेकर देवताओं पर आक्रमण कर दिया, और मार काट करके तहलका मचा दिया. चूँकि देवताओं की शक्ति क्षीण थी इसलिए, वे असुरों के सामने टिक नहीं पाए, और अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भागने लगे. इन्द्र भी अपना सिहांसन को छोड़कर भाग गये. इस प्रकार स्वर्ग पर अब असुरों का राज हो चूका था.
सभी देवता भागकर ब्रह्माजी की शरण में पहुँच गए और मार्गदर्शन की प्रार्थना करने लगे.
ब्रह्माजी के निवेदन पर इंद्र देव ने विश्वरुप को गुरु बनाया और यज्ञ करने को कहा. इन्द्र ने ब्रहंमाजी के कहे अनुसार विश्वरूप गुरु से कई सारे यज्ञ करवाएं. विश्वरूप की माताजी एक असुर कुल की थी इसलिए विश्वरूप देवताओं के साथ साथ असुरो की सहायता करते रहे. शीघ्र ही यह बात इंद्र को पता चल गयी. इन्द्र ने क्रोध में आकर विश्वरूप का सिर काट दिया. इस हत्या के पश्चात् इन्द्र को ब्रह्म हत्या का पाप लगा. इस कारण इंद्रा के माथे से तेज निकल कर आसमान में फ़ैल गया. सभी देवता इंद्रा भगवान् की उपेक्षा करने लगे.
यह सब देखकर बृहस्पति को दया आ गयी औरवे खुद इन्द्र के सामने प्रकट हो गये. इन्द्र ने उनसे उनके तिरस्कार की क्षमा मांगी. तब ब्राह्मण बृहस्पति ने प्रसन्न होकर देवताओं के लिए यज्ञ किये और उनको अपना राजपथ वापस दिलाया. इन्द्र की ब्रह्म हत्या को पृथ्वी, जल, प्रकृति, स्त्रियों में वितरित कर दिया.
सब कुछ वापस ठीक हो गया इन्द्र वापस स्वर्ग लोक में रहने लगे लेकिन त्वष्टा ऋषि अपने पुत्र विश्वरूप की हत्या के कारण अपने पराक्रम से वृतासुर नाम का एक भयंकर असुर को प्रकट किया, जो की इन्द्र को मार सकता हैं.
वृतासुर के भय से सभी देवता कांपने लगे. और सभी सेवता भाग कर ब्रह्माजी के पास गए. तब ब्रह्माजी ने कहा की आप सभी महर्षि दधिची के पास जाओ और उनसे मांग करो की वो आपको उनका वज्र प्रदान करे.
देवताओं को विश्वास नहीं था की महर्षि उनको उनका वज्र प्रदान करेंगे, लेकिन देवताओं की एक अनुबोधन पर महर्षि ने अपने शरीर का वज्र ननिकाल कर दे दिया.
इसके बाद देवताओं और वृतासुर के बीच युद्ध हुआ. जिसमे इन्द्र ने वृतासुर का संहार किया.